मध्यप्रदेश में नेतृत्व को लेकर दुविधा की शिकार कांग्रेस

सज्जन पुरुष बिना कहे ही दूसरों की आशा पूरी कर देते हैं जैसे सूर्य स्वयं ही घर-घर जाकर प्रकाश फैला देता है।
कालिदास
रहीम खान

इससे विडंबना कहे या दुर्भाग्य की मध्यप्रदेश की सत्ता से 2003 से बाहर प्रमुख विपक्षी कांग्रेस पार्टी प्रदेश के चुनाव में निरंतर पराजय और गलतियों से सबक लेने की वजह उन्हीं गलतियों को दोहराने में व्यस्त है। जिसने उसे सत्ता से बहार किया। जबकि दूसरी ओर आगामी विधानसभा चुनाव 2018 को लेकर सत्ताधारी भाजपा ने अपनी तैयारियों को पैनापन देने का कार्य शुरू कर दिया है। वहीं दूसरी ओर प्रमुख विपक्षी कांग्रेस पार्टी ने अपने संगठन चुनाव को करवा लिये। परन्तु पदाधिकारियों की घोषणा और परिणाम को ठंडे बस्ते में डालकर पार्टी में कार्यकर्ताओं के मध्य भ्रम और दुविधा की स्थिति पैदा कर दी। पूरा मामला कांग्रेस चुनाव प्राधिकरण के पास 3 माह से लंबित पड़ा है। इसका एक कारण मध्यप्रदेश में कांग्रेस के भीतर आपसी सामंजस्य और तालमेल का अभाव है जिसने पार्टी को दिखावा के चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सबसे बड़ा समस्या यह है कि कांग्रेस का दिल्ली हाईकमान यहां जो समस्यायें पार्टी के भीतर विद्यमान है उनका निराकरण करने के प्रति उसकी जो सजगता होनी चाहिये वह दिखती नहीं और उदासीनता के कारण अंसंतोष निराशा के भाव पार्टी के भीतर कार्य कर रहे है।
मध्यप्रदेश में कांग्रेस हाईकमान ने नये प्रभारी के रूप में दीपक बाबरिया उनके सहयोगी जुबेर खान और संजय कपूर को प्रदेश का प्रभार सौंप दिया है, ये नेता यहां आकर लगातार बैठक लेकर फिटबेक भी ले रहे है। परन्तु बीच बीच में इनकी ओर से ऐसे बयान आते है जो कार्यकर्ताओं में उत्साह कम निराशा ज्यादा पैदा करते है। इनकी मेहनत भी उसी समय सार्थक होगी जब ये प्रदेश के नेताओं को विश्वास में लेकर आगे बढ़ेगें।
प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव अगर कांग्रेस गुजरात तर्ज पर लड़ती है तो शायद उसको अधिक परेशानियाँ जायेगी। क्योंकि मध्यप्रदेश का राजनीतिक परिदृश्य गुजरात से एकदम भिन्न है। यहां धुवीकरण की राजनीति काम नहीं आती। इसलिये उसे समय की नब्ज को देखते हुए मुख्यमंत्री का चेहरा जनता के सामने लाना होगा, तभी उसको लाभ मिलेगा। क्योंकि प्रदेश में जनता पूछती है कि भाजपा के शिवराज को टक्कर देने के लिये कांग्रेस के पास कोई चेहरा ही नहीं है तो भला हम उसके साथ क्यों चले। जिसतरह का राजनीतिक परिदृश्य है उसमें जमीनी चर्चाओं के अनुसार शिवराज को कड़ी टक्कर देने की स्थिति में कांग्रेस पार्टी के नौ बार के सांसद पूर्व केन्द्रीय मंत्री और सबको साथ लेकर चलने में सक्षम सांसद कमलनाथ का नाम प्राथमिकताओं के साथ लिया जाता है। उसके बाद युवा चेहरे के रूप में दूसरा नाम सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का आता है। परन्तु कांग्रेस हाईकमान जिस तरह से जब प्यास लगेगी तब कुंआ खोदेगे की तर्ज पर काम कर रहा है ऐसी स्थिति में बहुत ज्यादा अच्छे परिणाम की कल्पना कांग्रेस के भीतर भी नहीं कर पा रहे है।
कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष अरूण यादव को पार्टी ने काम करने का बहुत अवसर दिया, उन्होंने प्रयास भी किया परन्तु वह सभी को साथ लेकर चलने में विफल रहे बल्कि प्रदेश में वह स्वयं ही अपनी लॉबी तैयार करने के चक्कर में अपने आप को एक दमदार प्रदेश अध्यक्ष के रूप में प्रस्तुत करने में विफल रहे, यही कारण है कि प्रदेश प्रभारी के साथ बैठक में विधायकों ने खुलकर उनकी कार्यप्रणाली का विरोध किया। उसके बाद भी कांग्रेस हाईकमान के कानों में जूँ नहीं रेगीं। ऐसी स्थिति में कांग्रेस भाजपा से मुकाबला करने में बहुत ज्यादा सफल नहीं होगी।
कांग्रेस प्रदेश में सोशल मीडिया में भले ही सक्रिय दिखती हो परन्तु जमीनी स्तर पर जिस कार्य की बूथ लेबल पर जरूरत है वह सब ठंडे बस्ते में है। केवल भाजपा के खिलाफ बयानबाजी करने से कांग्रेस प्रदेश की सत्ता में वापस नहीं हो सकती। कारण प्रदेश में बूथ लेबल तक भाजपा के पास मजबूत संगठन है। जबकि मध्यप्रदेश में सत्ताधारी भाजपा सरकार के खिलाफ मुद्दों की कहीं कोई कमी नहीं है उसके बाद भी जमीनी स्तर पर संगठन कांग्रेस का कमजोर है इसको मजबूत करने के तरफ ठोस निर्णय दिखाई नहीं पड़ता।
कांग्रेस हाईकमान अगर यह सोच रहा है कि वह गुजरात की तरह वर्ष 2018 में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और अन्य राज्यों के विधानसभा चुनाव लड़ेगा, तो यह उनकी सोच गलत है। क्योंकि हर राज्य के राजनीतिक परिदृश्य, वातावरण और मुद्दे अलग होते है। इसलिये वहां के जमीनी परिस्थितियों को देखते हुए निर्णय लेगें तो लाभ होगा।
कांग्रेस के नवनियुक्त राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी को मध्यप्रदेश में कांग्रेस के भीतर कार्यकर्ताओं को नेताओं में नेतृत्व को लेकर जो दुविधा उत्पन्न है उसे जल्द से जल्द समाप्त करना चाहिये अन्यथा उन्हें विधानसभा चुनाव में बेहतर परिणामों की कल्पना छोड़ देनी चाहिये। क्योंकि प्रदेश में कांग्रेस की वापसी के लिये पार्टी को जो प्रयास करना चाहिये वह दूर दूर तक नजर नहीं आ रहे है केवल सोशल मीडिया में विरोध का ताना बाना बुनने से सत्ता में वापसी नहीं होगी। भाजपा के अक्रामक गतिविधियों को जवाब अगर कांग्रेस अक्रामक ढंग से नहीं दे पायेगी तो उसे सम्मानजनक परिणाम की कल्पना भी नहीं करनी चाहिये। प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की चर्चा चंडूखाने की खबरे बनकर रह गई है। कोई भी युद्ध केवल संगठित होकर आगे बढऩे से जीता जाता है।

बिखरे हुए संगठन के सहारे सुनहरे सपने देखे जा सकते है पर उसे वास्तविकता का रूप नहीं दिया जा सकता। 2018 की तैयारी में कांग्रेस मध्यप्रदेश में भाजपा से बहुत पीछे खडी है जिसमें सुधार के दूर दूर तक कोई संभावनायें वर्तमान समय नजर नहीं आ रही है। मुख्यमंत्री शिवराज जैसे जमीनी स्तर से जुड़े राजनेता के समक्ष कांग्रेस उन्हीं के प्रोफाइल की बराबरी रखने वाले नेता को जब तक सामने नहीं लायेगी जनता में कांग्रेस के प्रति रूझान नहीं पैदा होगा। क्योंकि जनता देखना चाहती है कि अगर शिवराज नहीं तो फिर कांग्रेस से उनका विकल्प कौन ?