डॉ. हिदायत अहमद खान
यह तो गजब ही हो रहा है कि सदियों पहले की घटनाओं को केंद्र में रखकर देश में निर्दोष लोगों को निशाना बनाया जा रहा है और लगातार हिंसा की घटनाएं हो रही हैं। यहां हम बाबर या उसके जैसे अन्य मुगल बादशाहों की बात नहीं कर रहे हैं बल्कि महाराष्ट्र के पुणे में 200 साल पहले भीमा-मोरेगांव युद्ध की याद में होने वाले कार्यक्रम के दौरान हुई हिंसा पर विचार कर रहे हैं। दरअसल खबरों के जरिए बताया जा रहा है कि वर्ष 2018 के शुरुआती दिनों में ही महाराष्ट्र जातीय हिंसा की चपेट में आ चुका है। इसका मुख्य कारण भीमा-कोरेगांव युद्ध की 200वीं सालगिरह पर आयोजित कार्यक्रम में दलित और दक्षिणपंथी हिन्दू संगठनों के बीच हुई हिंसा में एक शख्स की मौत को बताया गया है।
अगर यह सच भी है तो कानून का पालन कराने की जिम्मेदारी निभाने वाली पुलिस को चाहिए था कि त्वरित और सख्त कार्रवाई करते हुए आरोपियों को सलाखों के पीछे पहुंचाती। इससे जहां क्षेत्र में शांति का माहौल बनता वहीं समाज में संदेश भी जाता कि पुलिस प्रशासन मूक दर्शक नहीं है बल्कि वह नियम और कानून की रखवाली के लिए मुश्तैद है। ऐसा नहीं हुआ इसलिए जातीय हिंसा मुंबई, पुणे, औरंगाबाद, अहमदनगर जैसे 18 शहरों तक फैल गई और जन-जीवन को बुरी तरह प्रभावित करके रख दिया। कहने वालों को मौका भी मिल गया कि यह सब गंदी राजनीति का परिणाम है। दरअसल कहा जा रहा है कि यह हिंसा राजनीतिक तौर पर लगातार विविधता पर हो रही चोट से उपजी है। देश को एक रंग में रंगने की कोशिशों ने सामाजिक ताने-बाने को ही उलझाकर रख दिया है। सभी इसके सिरे को तलाश करने के चक्कर में लगातार आत्मीयता रुपी धागे को काटते चले जा रहे हैं। इसका कुरूप चेहरा हिंसक झड़प के तौर पर हमारे सामने आ रहा है। इसमें पुलिस प्रशासन की मूक दर्शिता को ही दोषी ठहरा दिया जाना उचित नहीं होगा।
सवाल यह है कि जब उच्च स्तर पर ही वैचारिक धरातल पर समाज को बांटने का काम हो रहा हो तो फिर प्रशासनिक अमले से अच्छे रिजल्ट की उम्मीद करना बेमानी हो जाता है। ऐसे में प्रशासनिक अमले के ना चाहते हुए भी वो सब हो जाता है जो कि विघटनकारी ताकतें चाहती हैं। अंतत: एडमिनिस्ट्रेशन के पास शांति स्थापित करने के लिए धारा 144 लागू करने जैसा काम ही बच रहता है। बहरहाल भारिप, बहुजन महासंघ, महाराष्ट्र डेमोक्रेटिक फ्रंट, महाराष्ट्र लेफ्ट फ्रंट समेत 250 से ज्यादा दलित संगठनों ने महाराष्ट्र बंद का एलान किया तो इसका खासा असर भी देखने को मिला है। हद यह रही कि संसद में भी इस मामले को लेकर तीखी नोंक-झोंक देखने को मिली। एक तरफ कांग्रेस समेत विपक्षी पार्टियों ने जहां सरकार पर हमला बोला तो वहीं जवाब में सत्ता पक्ष ने इसे सीधे राजनीति से जोड़ दिया। दरअसल इस मामले को लेकर विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े और संसदीय कार्यमंत्री अनंत कुमार के बीच बहस हुई। जहां खडग़े का कहना था कि भीमा-कोरेगांव में हर साल दलित लोग जाकर स्मारक पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। ऐसे में समाज को फूट डालकर बांटने के पीछे कट्टर हिंदूवादी और आरएसएस का हाथ है। उन्होंने इसका सबूत देते हुए सदन को बताने की कोशिश की कि जिन राज्यों में भाजपा की सरकार है, वहां पर दलितों के खिलाफ इसी प्रकार के हादसे हो रहे हैं। उन्होंने मांग भी रखी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस मुद्दे पर बयान देना चाहिए। उन्होंने सवाल किया कि प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर चुप्पी क्यों साधी हुई है? इतना सुनना था कि केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार ने खडग़े पर मामले को भड़काने का आरोप लगा दिया और कहा कि कांग्रेस पार्टी गुजरात और हिमाचल हार चुकी है, इसलिए निराशा के कारण इस प्रकार की बातें कर रही है। इस प्रकार की वार्तालाप बताती है कि हमारे देश की दिशा और दशा तय करने वालों को इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता कि लोग मारे जा रहे हैं और समाज में टूटन आ रही है।
लोग एक-दूसरे को शक की नजर से देख रहे हैं और हमले करने वाले लगातार हिंसक हो हमले भी कर रहे हैं। इसे देशहित में की जाने वाली कार्रवाई का नाम तो कतई नहीं दिया जा सकता है। इसलिए आमजन को ही समझना होगा कि हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकता और जो मामले हमारे सम्मुख हैं भी तो वो सिर्फ और सिर्फ वैचारिक धरातल पर तैयार किए गए भ्रम के कारण ही हैं। इन्हें आप जितना गंभीरता से अपनी जिंदगी में जगह देंगे उतने ही कष्ट में समाज जाता चला जाएगा। इसलिए देश की आन-बान और शान को बनाए रखने के लिए आमजन को आगे आना होगा।