बांग्लादेशियों को वापस खदेडऩा नहीं होगा आसान

अनिल बिहारी श्रीवास्तव

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर तैयार हो रहे नागरिकता के रजिस्टर(एनआरसी)के पहले प्रारूप को भारत के महापंजीयक एवं जनगणना आयुक्त द्वारा जारी किए जाने के साथ एक उम्मीद जागी है। कम से कम इस बात की अब पहचान हो सकेगी कि असम में रहने वालों में कितने लोग भारतीय नागरिक हैं और भारतीय होने का मुखौटा लगा कर हमारे संसाधनों को चूस रहे विदेशी विशेषकर बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या कितनी है। असम में तीन करोड़ 29 लाख लोगों ने इस राज्य का बाशिन्दा होने का दावा किया था। प्रारूप के अनुसार इनमें से सिर्फ एक करोड़ 90 लाख लोगों के पास अपने दावे के पक्ष में वैध दस्तावेज हैं। लेकिन फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि बाकी के एक करोड़ 39 लाख लोगों में से कितने लोग असम में अवैध रूप से रह रहे हैं। अभी शेष दावों की जांच बाकी है। यह माना जा रहा है कि पूरी कड़ाई से दस्तावेजों की जांच की गई तो असम में रह रहे घुसपैठियों की संख्या लाखों में निकलेगी। इस बीच आल असम स्टूडेंट यूनियन ने प्रारूप प्रकाशन की शुरूआत का स्वागत किया है।
संगठन ने कहा है कि इस कदम से असम को बांग्लादेशियों से मुक्त करने के लिए सही दिशा में बढ़ा गया है। आल असम स्टूडेंट यूनियन(आसू) ने असम में बांग्लादेशियों की घुसपैठ के विरूद्ध लंबी लड़ाई लड़ी है। 1980 के दशक में आसू की अगुआई में असम में जन आंदोलन चला था। संघर्ष 1985 में राजीव गांधी सरकार और आसू के बीच समझोैता होने पर ही थम सका। समझौता इस बात पर हुआ था कि 25 मार्च 1971 तक जो लोग असम में थे, उन्हें ही भारतीय नागरिक माना जाए। इस डेड लाइन को तय करने का कारण 26 मार्च 1971 में बांग्लादेश का बन जाना था। सियासी मक्कारों ने समझौता होने के बाद भी न तो असम में अवैध रूप से रहने वालों की पहचान करने लिए कोई ईमानदार प्रयास किए और न ही बांग्लादेश से घुसपैठ रोकने के बहुत पुख्ता कदम उठाए गए। नतीजा यह हुआ कि असम के अलावा पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा सहित दिल्ली और मुम्बई तक बांग्लादेशी घुसपैठिये फैलते चले गए।
आज भारत में लगभग चार करोड़ बांग्लादेशी नागरिक अवैध रूप से रह रहे हैें। स्थानीय नेताओं और दलालों की मदद से इनमें से अधिकांश ने राशनकार्ड, मतदाता पहचान पत्र आदि बनवा लिए। घुसपैठियों के कारण कानून एवं व्यवस्था से जुड़ी समस्याएं आए दिन सामने आतीं है। वहीं, देश की सुरक्षा के लिए भी खतरा बढ़ रहा है। एक अन्य बड़ी समस्या देश के संसाधनों का इन विदेशियों के द्वारा दोहन किए जाने की है। ऐसे घुसपैठियों के कारण देश के मूल निवासी संसाधनों पर अपने वाजिब हक से वंचित हो रहे हैं। आम लोगों के लिए यह उत्सुकता का विषय हो सकता है कि लाखों बांग्लादेशी घुसपैठिये भारत आ गए और कैसे हमारी सरकार चलाने वाले लोग खर्राटों में मग्र रहे? यह आरोप निराधार नहीं है कि कुछ राजनीतिक दल और नेताओं ने वोट बैंक क्षुद्र की राजनीति के लिए राष्ट्रहित की अनदेखी की। उन्होंने इन विदेशियों को यहां अवैध रूप से आने और बसने में भरपूर मदद की है। परिणाम स्वरूप आज असम के साथ-साथ पश्चिम बंगाल के अनेक इलाकों की आबादी में असंतुलन साफ दिखाई देने लगा। असम के अनेक सीमावर्ती गांवों में हालात अच्छे नहीं बताए जा रहे। वहां अस्सी प्रतिशत आबादी मुस्लिमों की हो गई है। ऐसा आरोप लगाया जा रहा है कि बांग्लादेश से आए घुसपैठियों ने राजनीतिक संरक्षण के बूते कई गांवों में न केवल वहां मूल नागरिकों की जमीनों पर कब्जा कर लिया बल्कि बड़े पैमाने पर वन भूमि हथिया ली। वहां उनका आतंक है। ऐसे गांवों के मूल असमी नागरिकों को पलायन पर मजबूर होना पड़ा। असम के पड़ौसी राज्य पश्चिम बंगाल में भी बांग्लादेशी घुसपैठियों को भरपूर राजनीतिक संरक्षण मिला। पश्चिम बंगाल में माकपा की अगुआई वाले वाममोर्चा सरकार के कार्यकाल के दौरान राज्य के अनेक नगरों और गांवों में बांग्लादेशी नागरिकों की संख्या तेजी से बढ़ी। इसको लेकर सैंकड़ों बार चिन्ता व्यक्त की गई लेकिन तत्कालीन वाममोर्चा सरकार तथा केन्द्र सरकार ने बढ़ते खतरे को कभी गम्भीरता से नहीं लिया। हैरानी की बात तो यह रही कि पश्चिम बंगाल में अन्य राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने भी इस मामले में चुप्पी साधे रखी। देश में लाखों बांग्लादेशी नागरिकों के घुस आने के लिए सिर्फ केन्द्र की पिछली सरकारों में बैठे लोगों की अकर्मण्यता और असम एवं पश्चिम बंगाल की राजनीतिक बिरादरियों के छल-कपट को ही जिम्मेदार कहा जा सकता है। इनके पाप को बोझ देश उठा रहा है। असम की तरह पश्चिम बंगाल में अवैध घुसपैठियों के प्रति वोट बैंक के सौदागरों के प्रेम का एक उदाहरण कुछ बरस पूर्व सामने आया था। महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा गठबंधन की एक सरकार के कार्यकाल के दौरान राज्य में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशियों के विरूद्ध अभियान छेड़ा गया था। महाराष्ट्र की इस कार्रवाई का पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने जम कर विरोध किया। ममता बैनर्जी भी महाराष्ट्र सरकार की कार्रवाई का विरोध कर रहीं थीं। तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार की कार्रवाई को बांग्लाभाषी मुसलमानों के विरूद्ध साजिश करार दिया गया। पश्चिम बंगाल के सांसदों ने यह मुद्दा संसद उठाया। हद तो तब हो गई जब महाराष्ट्र में गिरफ्तार बांग्लादेशियों को छोडऩे महाराष्ट्र पुलिस ट्रेन से पश्चिम बंगाल पहुंची तो वामपंथी दलों के कार्यकर्ताओं ने धावा बोल कर उन्हें मुक्त करा लिया। पश्चिम बंगाल में वोट बैंक की निकृष्ट राजनीति वाममोर्चा सरकार के समय खूब देखने को मिली थी। अब वहां सत्ता सुख भोग रहीं ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने वही शैली अपना रखी है। ममता बैनर्जी की राजनीति में तुष्टिकरण की सड़ांध नथुनों को बेदम कर देती है। कहा जाता है कि ममता का बस नहीं चल रहा अन्यथा वह म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों को भारत आ कर बस जाने का न्यौता देने में देर नहीं करतीं। कल्पना कीजिए कि ऐसे राजनेताओं और ऐसी राज्य सरकारों के रहते भारत में अवैध रूप से रहने वालों की पहचान और उन्हें निकाल बाहर करना कितना मुश्किल काम होगा।
लगभग दस वर्ष पूर्व सीमा सुरक्षा बल के तत्कालीन प्रमुख ने बताया था कि हर साल 24 हजार से अधिक बांग्लादेशी नागरिक भारत में घुस आते हैं। दुनिया के किसी भी देश में नियमित रूप से होने वाली घुसपैठ का यह सबसे बड़ा उदाहरण कहा जाएगा। ये घुसपैठिये हमारे मूल नागरिकों का हक तो मारते ही हैं साथ ही अपराध और भारत विराधी गतिविधियों में भी इनकी लिप्तता के प्रमाण मिले हैं। अनेक पुलिस अधिकारी मानते हैं कि बांग्लादेशी नागरिक गम्भीर किस्म के अपराधों तक में लिप्त पाए गए हैं।
उदाहरण मिले हैं जिनमें कुछ बांग्लादेशी नागरिक हत्या, लूट और डकैती जैसे अपराध करके वापस बांग्लादेश भाग गए। आज चुनौती यह है कि इन घुसपैठियों से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है? बात चाहे मानवता की हो या मजबूरी की करें, यहां विचार इस बात पर अवश्य किया जाना चाहिए कि बढ़ती आबादी के कारण संसाधनों पर पड़ रहे दबाव से भारत स्वयं परेशान है। सवा अरब से अधिक हो चुकी आबादी के लिए जमीन और जल दोनों की कमी के कारण हम खुद ही तनाव में हैं। इस हकीकत के बाद भी परमार्थ का राग गा कर भारत की भावी पीढ़ी के लिए मुसीबत बढ़ाना विशुद्ध मूर्खता होगी? जनगणना विशेषज्ञ मानते हैं कि अगले एक दशक में भारत आबादी के मामले में चीन को पीछे छोड़ देगा। सन 2050 तक भारत की आबादी एक अरब 61 करोड़ हो जाने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है। जाहिए है कि हम स्वयं ही कठिन समय की ओर बढ़ रहे हैं।