डॉ.हिदायत अहमद खान
संभवत: इससे पहले कभी आपने सुना हो कि किसी फिल्म की रिलीज को रोकने सामाजिक संगठनों के साथ ही साथ धार्मिक और राजनीतिक संगठन भी सड़कों पर उतरे। फिल्म को लेकर सजगता भी इस तरह की कि विरोध हुआ और इस कदर हुआ कि फिल्म निर्माता को मारा-पीटा गया, तोड़-फोड़ की गई, लेकिन फिल्म को बनना था सो बन गई। अगर मामला यहीं शांत हो जाता और कहीं से कोई आवाज नहीं आई होती तो कोई बात नहीं थी, लेकिन जैसे ही फिल्म की रिलीज डेट सामने आई गुजरात विधानसभा चुनाव का हवाला देते हुए भाजपा नेताओं द्वारा उसे आगे बढ़ाने की मांग कर दी गई। इससे स्पष्ट हुआ कि फिल्म का विरोध सामाजिक, धार्मिक या किसी संप्रदाय विशेष का नहीं बल्कि राजनीतिक भी है,
जिसके लिए पूरा प्रपंच रचा गया। एक फिल्म को बनाने से लेकर उसके रिलीज तक की फिल्म राजनीतिक मंच पर तैयार हुई और उससे लाभ और हानि का भी आंकड़ा प्रस्तुत कर दिया गया। बहरहाल जैसा चाहा गया वैसा ही हुआ और फिल्म रिलीज नहीं हो पाई, गुजरात चुनाव परिणाम भी आ गए और भारतीय जनता पार्टी ने सरकार भी बना ली, लेकिन अब जो सवाल खड़े हो रहे हैं उससे इतना तो तय है कि फिल्म पद्मावती का मामला अभी और तूल पकडऩे वाला है। यही वजह है कि संजय लीला भंसाली की बहुप्रतीक्षति फिल्म पद्मावती पर सेंसर बोर्ड और निर्माताओं के बीच भले ही कैंची चलने और संवाद बदलने के साथ समझौता हो गया हो, लेकिन इसका विरोध करने वाली करणी सेना अब सीधे भाजपा से दो-दो हाथ करने का मन बना चुकी है। खबर अगर सही है तो करणी सेना ने देशभर में फिल्म रिलीज के खिलाफ आंदोलन और भाजपा को सबक सिखाने की धमकी दे दी है। आरोपों के चलते करणी सेना ने सेंसर बोर्ड के चीफ प्रसून जोशी को भी हटाने की बात कह दी है। मानों सब कुछ फिक्स रहा हो और अब लीक से हटने के कारण दोबारा विरोध शुरु हो गया हो।
इसलिए पूछा जा रहा है कि अब तक फिल्म बनाने वाले संजय लीला भंसाली जेल की सलाखों के पीछे क्यों नहीं पहुंच पाए हैं। उनके बाहर होने पर भी सवाल उठाए जा रहे हैं। करणी सेना के नेता सुखदेव सिंह गोगामेड़ी की ओर से बताया जा रहा है कि जौहर प्रथा के उल्लेख पर समाज में नाराजगी है और इसलिए वो भी खासे नाराज हैं। बकौल सुखदेव, जौहर इसलिए किया गया था क्योंकि माता पद्मिनी नहीं चा?हती थीं कि खिलजी उनके मृत शरीर को भी हाथ लगा सके। उनका बलदिान महान था। अब चूंकि बात निकली है तो नोटबंदी तक तो जाना ही चाहिए, अत: सवाल इस पर भी है कि जब फिल्म बन रही थी तब देश में नोटबंदी लागू थी, ऐसे में फिल्म को फंडिंग कैसे और किन लोगों ने की। इसके पीछे भी एक भ्रष्टाचार काम कर रहा था और उसकी जांच सरकार को करानी ही चाहिए। पर अफसोस कि जांच कराना संभव कैसे हो सकता है, क्योंकि नोटबंदी के समय जब कि किसी के पास 4 हजार रुपए भी मुश्किल से हुआ करते थे तब भी फिल्म के लिए करोड़ों की फंडिंग होती रही और सरकार व जिम्मेदार विभाग खामोश रहे। ऐसे में इनकी भी जांच तो बनती है, लेकिन खुद अपनी जांच कराना संभव कैसे हो सकता है, जिसकी ओर करणी सेना इशारा करती है और भाजपा को सबक सिखाने की बात करती है। बकौल करणी सेना भंसाली हिन्दू संस्कृति को बेचने का काम कर रहे हैं और इसके लिए उन्हें देशद्रोही घोषित किया जाना चाहिए, जबकि हकीकत यह है कि इतिहासकार ऐसी किसी कहानी को सत्य नहीं बताते जिस पर कि फिल्म बनाई गई है और अब जबकि फिल्म का नाम परिवर्तित करने तक की बात सामने आ चुकी है तो फिर विरोध समझ से परे है। इसका तो सीधा अर्थ यही है कि सरकार और फिल्म का विरोध करने वाले संगठनों के बीच जो मसौदा हुआ था उससे कोई एक पक्ष हट गया और सारी मुसीबत खड़ी हो गई। अगर ऐसा नहीं है तो फिर यहां यह भी नहीं भूलना चाहिए कि यह पहली विवादित फिल्म नहीं है जिसे लेकर इतना हल्ला मचा हुआ है। इससे पहले भी बैंडेट क्वीन विवाद सामने आया था और चूंकि फूलन देवी की सच्ची घटना पर यह फिल्म आधारित थी अत: शुरुआती दौर में इसे बैन कर दिया गया। बाद में यह रिलीज हुई और किसी को कोई आपत्ति भी नहीं हुई। वहीं दीपा मेहता की फिल्म फायर को लेकर विवाद हुआ था। दरअसल फिल्म की कहानी एक हिंदू परिवार की दो सिस्टर-इन-लॉ के लैसबियन होने को लेकर थी, जिसे विरोध के चलते सेंसर बोर्ड ने बैन कर दिया था। ऐसी अनेक फिल्म हैं जिन्हें रिलीज होने से रोका गया और उन पर कोई सवाल नहीं उठे। फिर पद्मावती को लेकर इस तरह की हायतौबा क्योंकर हो रही है, इसके पीछे भी कहीं न कहीं राजनीति ही काम करती हुई नजर आती है। वर्ना सेंसर बोर्ड यदि चाहे तो फिल्म को बैन कर मामले को सिरे से शांत कर सकता है, लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि इस मामले को भी लंबे समय तक जिंदा रखना है और लोगों का फिल्म के नाम पर ध्रुवीकरण जो करना है।