सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य नहीं होगा

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के हलफनामे के बाद किया संशोधन
नई दिल्ली, 10 जनवरी । केंद्र सरकार के रुख में आये बदलाव के बाद उच्चतम न्यायालय ने सिनेमाघरों में राष्ट्रगान की अनिवार्यता समाप्त कर दी है। मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर और न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ की पीठ ने 30 नवम्बर 2016 के उस अंतरिम आदेश में आज संशोधन किया, जिसके तहत उसने सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाना तथा इस दौरान दर्शकों को अपनी सीट पर खड़ा होना अनिवार्य बनाया था। इस अनिवार्यता से, हालांकि दिव्यांगों और नि:शक्त लोगों को छूट दी गयी थी।
न्यायमूर्ति मिश्रा ने पूर्व के आदेश में संशोधन करते हुए कहा कि यह सिनेमाघरों पर निर्भर करेगा कि वे राष्ट्रगान बजाये या नहीं। हालांकि न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यदि राष्ट्रगान बजाया जाता है तो दर्शकों को खड़ा होकर सम्मान करना होगा। न्यायालय ने अंतरिम आदेश में संशोधन केंद्र सरकार के कल के उस हलफनामे के बाद किया है, जिसमें उसने कहा था कि वह सिनेमाघरों में राष्ट्रगान को फिलहाल अनिवार्य न बनाये। खंडपीठ ने कहा कि पांच दिसंबर को केंद्र सरकार ने इस मामले में मंत्रालयों की एक समिति बनाई है और वही राष्ट्रगान संबंधी हर पहलू एवं मुद्दे पर विस्तारपूर्वक जांच करेगी। याचिकाकर्ता अपने सुझाव इस समिति को दे सकते हैं। इसके साथ ही पीठ ने कहा कि याचिका की सुनवाई बंद की जाती है। सुनवाई के दौरान एटर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने कहा कि सीमा प्रबंधन के
अतिरिक्त सचिव की अगवाई में 12 अफसरों की समिति तमाम पहलुओं पर गौर कर रिपोर्ट देगी। केंद्र सरकार ने शीर्ष अदालत में कल दाखिल अपने हलफनामे में कहा था कि उसने अंतर मंत्रालयी समिति बनाई है, जो छह महीने में अपने सुझाव देगी। इसके बाद सरकार तय करेगी कि कोई अधिसूचना या सर्कुलर जारी किया जाये या नहीं। तब तक राष्ट्र गान को अनिवार्य करने संबंधी 30 नवंबर, 2016 के आदेश से पहले की स्थिति बहाल हो। गौरतलब है कि 23 अक्टूबर, 2017 को शीर्ष अदालत ने केंद्र सरकार को कहा था कि सिनेमाघरों और अन्य स्थानों पर राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य हो या नहीं, इसे वह (सरकार) तय करे। इस संबंध में जारी कोई भी सर्कुलर न्यायालय के अंतरिम आदेश से प्रभावित न हो।
शीर्ष अदालत ने यह भी कहा था कि यह भी देखना चाहिए कि सिनेमाघर में लोग मनोरंजन के लिए जाते हैं, ऐसे में देशभक्ति का क्या पैमाना हो, इसके लिए कोई रेखा तय होनी चाहिए या नहीं? इस तरह की अधिसूचना या नियम का मामला संसद का है। यह काम न्यायालय पर क्यों थोपा जाए?