(चेतन चौहान)
भारतीय संस्कृति में रचे बसे तीज-त्यौहार जहां आपसी प्रेम व भाईचारे को बढ़ावा देते है, वही इनसे मिलने वाली प्रेरणा से हर वर्ग व सम्प्रदाय के बीच रिश्ते भी अटूट बनते हैं। प्रति वर्ष मकर सक्रान्ति के दिन जब वर्ष का सबसे ठंडा दिन होता है, उस दिन समूचे उत्तर भारत में विशेष रूप से पंजाब, हरियाणा, दिल्ली व जम्मू कश्मीर में ‘लोहड़ीÓ का त्यौहार अत्यन्त ही हर्ष व परम्परागत तरीके से मनाया जाता है। इस त्यौहार को हिन्दू-सिख व मुस्लिम भाई भी पूरे उल्लास के साथ मनाते है। त्यौहार आने से कुछ ही दिन पूर्व बच्चों के विशेष झुण्ड शाम होते ही एक प्रचलित गीत के साथ घर-घर में लोहड़ी मांगने जाते है। लोहड़ी गीत गाने के पश्चात् बच्चों को कुछ रुपये व मक्का की फुलियां रेवड़ी इत्यादि भी दी जाती है जिस परम्परागत गीत को गाया जाता है उससे जुड़ी एक पौराणणिक गाथा भी है लेकिन छोटे बच्चे गीत को कुछ यूं गाते है।
हुली नी माये हुले। दो बेरी पत्थर दुल्ले।
दो दिल पाईयां खजूरां, इन नब्बी दा करो मंगवा।।
हरियाणा में जिस घर में नई शादी हुई हो, शादी की पहली वर्षगांठ हो अथवा संतान का जन्म हुआ हो, वहां तो लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। लोहड़ी के दिन कुंवारी लड़कियां रंग-बिरंगें, नए-नए कपड़े पहनकर घरों में पहुंच जाती हैं और लोहड़ी मांगती हैं, वे नवविवाहित लड़कों के साथ अठखेंलिया करती हुई लड़कियां यह कहकर लोहड़ी मांगती हैं :-
लोहड़ी दो जी लोहड़ी, जीवै तुहाड़ी जोड़ी।
इसी प्रकार नवजान शिशिुओं को भी गोद में उठाकर लड़किया उन्हें गीतों के माध्यम से आशीर्वाद देते हुए उनके माता-पिता से लोहड़ी मांगती है। लोहड़ी से कुछ दिन पहले ही गली मौहल्ले के लड़के लड़किया घर-घर जाकर लोहड़ी के गीत गाकर लोहड़ी मांगने लगते हैं और लोहड़ी के दिन उत्सव के समय जलाई जाने वाली लकडिया व उपले मांगते समय भी बच्चे लोहड़ी के गीत गाते है।
हिलण वी हिलणा, लकड़ी लेकर हिलणा,
पाथी लेकर हिलणा,दे माई लोहड़ी, तेरी जिए जोड़ी।
जिस घर से लोहड़ी या लकडिय़ां व उपले नहीं मिलते, वहां बच्चों की टोली इस प्रकार के गीत गाती हुई भी देखी जा सकती है :-
कोठ उते हुक्का, ऐ घर भुक्खा
उड़दा-उड़दा चाकू आया, माई दे घर डाकू आया।
लड़किया जब घर-घर जाकर लोहड़ी मांगती है और उन्हें लोहड़ी मिलने का इन्तजार करते हुए कुछ समय बीत जाता है तो वे यह गीत गाती है :-
साडे पैरां हेठ सलाइयां, असी केहड़े वेले दीयां आइयां, साडे पैरां हेठ रोड़, माई सानूं छेती छेती तोर।
इन गीतों के बाद जब उन्हें कोई जवाब नहीं मिलता है तो वे कहती है :-
साडे पैरां हेठ दही, असी इथों हिलणा ही नहीं।
लोहड़ी के दिन सुबह से ही रात के उत्सव की तैयारियां शुरु हो जाती है और रात के समय लोग अपने-अपने घरों के बाहर अलाव जलाकर उसकी परिक्रमा करते हुए उसमें तिल, गुड, रेबड़ी, इत्यादि डालते है। उसके बाद अलाव के चारों और शुरु होता है गिद्दा और भंगड़ा का मनोहारी कार्यक्रम जो देर रात्रि तक चलता है। लोहड़ी के दिन लकडिय़ों व उपलों का जो अलावा जलाया जाता है उसकी राख अगले दिन मोहल्ले के सभी लोग सूर्योदय से पूर्व ही अपने-अपने घर ले जाते है क्योंकि वे इस राख को ईश्वर का उपहार मानते हैं।