हमारे नौसिखियों की विदेश नीति

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने साफ शब्दों में स्वीकार किया है कि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल थाईलैंड में बैठकर पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जनरल नसीर जेंजुआ के साथ बातचीत कर रहे थे। यह बातचीत 26 दिसंबर को हुई याने उसके दूसरे दिन हुई, जिस दिन कुलभूषण जाधव की मां और पत्नी को इस्लामाबाद में बेइज्जत किया गया था। हमारी सरकार इधर उस मामले पर हायतौबा मचा रही थी, कपड़े फाड़ रही थी और बैंकाक में हमारा अफसर पाकिस्तानी अफसर के साथ लुक-छिपकर बातचीत कर रहा था। मैं पूछता हूं, यह लुका-छिपी क्यों हो रही है, किसके डर के मारे हो रही है? वे बैंकाक में क्यों मिल रहे हैं? वे दिल्ली और इस्लामाबाद में क्यों नहीं मिल सकते? यह जरुरी नहीं है कि वे दिल्ली या इस्लामाबाद में जो बातें करेंगे, उन्हें जनता को बताना जरुरी है। कूटनीति में गोपनीयता और चुप्पी का महत्व कौन नहीं जानता? लेकिन हमारे नेता जब ये बोलते हैं कि आतंक और बात साथ-साथ नहीं चल सकते तो वे क्या मसखरे-से नहीं लगते हैं ? जब दोभाल चुप है तो सुषमा और मोदी को जुबान चलाने की जरुरत क्यों है ? लात और बात का साथ-साथ चलना तो महाभारत के जमाने से चला आ रहा है।
सूर्यास्त के पहले तक युद्ध और उसके बाद वार्तालाप खुद कृष्ण चलाते थे। राम ने हनुमान को लंका क्यों भेजा था ? अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहावर, निक्सन और केनेडी के जमाने में अमेरिका और चीन के राजदूत पोलैंड में बैठकर लगातार कई वर्षों तक बात करते रहे या नहीं ? यह बात उस समय भी जारी थी जबकि माओत्से तुंग ने अमेरिकी हमले के खतरे के कारण सारे चीन में खंदकें खुदवा रखी थीं। कारगिल-युद्ध के दौरान अटलजी ने एक व्यक्ति को प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से बात करने के लिए भेजा था। मियां नवाज़ ने मुझे फोन करके यह युद्ध के दौरान ही बताया। अटलजी, नवाज शरीफ और मेरे बीच त्रिकोणात्मक संवाद चलता रहा और युद्ध भी चलता रहा। भाजपा की मुसीबत यह है कि उसके नेता विदेश नीति के मामले में बिल्कुल नौसिखिए हैं। और उनकी मुसीबत यह भी है कि उनमें इतनी योग्यता भी नहीं है कि वे विदेशनीति के विशेषज्ञों से खुलकर बात कर सकें। वर्तमान भाजपा के पास योग्य बुद्धिजीवियों का यों भी टोटा ही रहता है।