मध्यप्रदेश में लोकतंत्र का मंदिर अर्थात् मध्यप्रदेश विधानसभा अब विधानसभा कहलाने के लायक नहीं रह गयी है, क्योंकि पिछले 20 वर्षों से सदन की मर्यादाओं ने जिस तरह एक के बाद एक दम तोड़ा वह 70 वर्षों के इतिहास में लगातार मध्यप्रदेश की विधानसभा की गरिमा को गिराने वाले ऐसे दिनों की गिनती है, ऐसे वर्षों का इतिहास बन गया है जिसे लोकतंत्र के मंदिर में चुने हुए प्रतिनिधियों की बेशर्मी के लिए गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकार्ड में दर्ज किया जाना चाहिए। विधानसभा के सदस्य अपनी स्वयं की ताकत को इस तरह कमजोर करेंगे, ऐसा किसी ने भी नहीं सोचा होगा जिन्होंने उन्हें चुना, और तो और आने वाली युवा पीढ़ी अपने बुजुर्ग नेताओं से विधानसभा सदन के भीतर केवल हल्ला बोलने का पाठ ग्रहण करेगी और बाद में जब जनहित के मुद्दे सदन के भीतर दफन होते देखेगी, तो यह मानकर चलेगी कि मध्यप्रदेश की राजनीति में कोई शरीफ आदमी कदम रखने के पहले सौ बार यह संकल्प लेगा कि सदन के भीतर कुछ हो या ना हो हंगामा खड़ा करने की आदत पालना जरूरी है। 50 वर्षों की पत्रकारिता के सफर में हमने, मध्यप्रदेश विधानसभा की गौरवशाली पर्पराओं का अब पहली बार ऐसा पतन होते हुए देखकर लगता है कि, विधानसभा के सदन को विधायकों की कुर्सियों का दंगल के लिए अखाड़ा घोषित कर दिया जाता। मुझे यह लिखने में ना तो शर्म है और ना तो संकोच है कि पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की पहली पारी तक सदन में जनहित के मुद्दों पर विधायकों ने सार्थक बहस पर हिस्सा लेने में कोई कमी नहीं की थी और तब तक तो सदन आम जनता से जुड़े हुए मुद्दों को लेकर जब तक अपने प्रत्येक विधायकों द्वारा उठाये गये मुद्दों को निदान तक नहीं पहुंचा लेते तब तक सदन चलता रहता। चाहे रात के 2 बज जाये लेकिन सदन पूरे शबाब पर चलता, परन्तु आज तो ले देकर सदन दिन में 2 बजे तक ही चल जाये तो बहुत है। याद करिये पूर्व विधानसभा अध्यक्ष कुंजीलाल दुबे का जमाना, किसी फारेस्ट गार्ड का निल्बन गलत हो जाये तो नेता प्रतिपक्ष उनके निल्बन को सदन के अंदर ही समाप्त करा देने की घोषणा के बाद ही अपने शब्द वापस लेते थे। मुख्यमंत्री पं. द्ववारिका प्रसाद मिश्र, श्यामाचरण शुक्ला, प्रकाश चंद्र सेठी, वीरेन्द्र कुमार सखलेचा, अर्जुन सिंह, सुंदरलाल पटवा, और फिर दिग्विजय सिंह तक जितने भी विधानसभा अध्यक्ष रहे सदन के अंदर प्रोसिडिंग, ध्यानाकर्षण, प्रश्नोāार काल, बजट भाषण, विभाग वार हर मुद्दे पर चर्चायें यही सब विषय रखने की ज्मिेदारी, जिस जनता ने आपको अपना प्रतिनिधि बनाकर चुना है उसके लिए सदन की खुराक की तरह, अच्छे भोजन की तरह प्रत्येक विधायक को लोकतंत्र के इस मंदिर में परोसना होता है। और यही भोजन सदन का स्वाद रेखांकित करने के लिए हमारे जैसे लोकतंत्र के चौथे स्त्भकारों को मजबूत कलम का जागरूक सिपाही भी बनाता है। लेकिन वाह रे सāाा के कर्णधारों, पोषण आहार घोटाले के आरोप से इस तरह बैकफुट पर आये कि पोषण आहार घोटाले में दोषियों को सजा देने की घोषणा करने के लिए 48 घंटे गुजार दिये। और दूसरी तरफ विपक्ष को लगा कि अब उनके हाथ में तो पोषण आहार घोटाले का एटम बम लग गया है। पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ और नेता प्रतिपक्ष डॉ. गोविन्द सिंह ने तो यह सोच लिया कि ‘पोषण आहार घोटाला आ गयो, अब तो शिवराज गयो।Ó क्या ऐसी छोटी सोच के लिए मध्यप्रदेश की विधानसभा में 8 करोड़ जनता ने 230 विधायकों को चुनकर भेजा है? यह सवाल बेहद संगीन भी है और इस सवाल में उस भोली-भाली जनता के साथ विश्वासघात छिपा हुआ है, जिसने अपने विधानसभा क्षेत्र के विकास के लिए, जनता की समस्याओं के लिए उनकी आवाज बनकर उनका पक्ष रखने के लिए आपको यहां भेजा है। मैं अभी तक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के बारे में अपनी राय जाहिर करने से इसलिए बचता आया था क्योंकि मुझे लगता था कि राजनीति में सज्जनता एक बड़ी ताकत है, जिसकी वजह से वे 18 वर्ष तक मुख्यमंत्री के रूप में बेताज बादशाह रहे, बच्चों के मामा बनकर आजातशत्रु की तरह राज किया, लेकिन आज यह लिखने में मुझे संकोच नहीं है कि शिवराज जी ने तथाकथित पोषण आहार घोटाले मामले में यह कहने का साहस नहीं जुटाया कि ‘यदि वे पोषण आहार घोटाले में दोषी पाये जायेंगे तो राजनीति से संन्यास ले लेंगेÓ। मैं पूरे दावे के साथ कहता हूं मुख्यमंत्री जी आज भी यदि आपने यह वाक्य कह दिया कि पोषण आहार घोटाले में दोषी पाये जाने पर राजनीति से सन्यास ले लेंगे, तो तय मानिये आपका यह वाक्य सीज फायर की तरह काम करेगा और आपकी राजनैतिक सेहत को आने वाले 10 वर्षों तक कोई चुनौती नहीं दे पायेगा, बस एक नैतिक साहस की जरूरत है। और जहां तक सवाल है लोकतंत्र के मंदिर का तो पोषण आहार घोटाला मामले को लेकर जिसे आपने प्रारंभिक रिपोर्ट कहा है उससे अज्ञानता के अंधकार में डूबे हुए विपक्ष ने पूरे सदन को कुपोषित कर दिया है, ऐसा कहा जाये तो आश्र्चय में डूबने की जरूरत नहीं है क्योंकि सदन के उपहास के लिए जितना विपक्ष दोषी है उतना ही दोषी सत्तारूढ़ दल भी है। यह कू्रर तथ्य पिछले 15 वर्षों के इतिहास में मध्यप्रदेश की विधानसभा को अमर्यादित करने में अहम भूमिका निभाता है। मुझे तो लगता है विपक्ष के पास सदन को परोसने के लिए जनहित मुद्दों को लेकर विषय वस्तु की सार्थकता का कोई भोजन ही नहीं है। और सāाारूढ़ दल के पास जब सदन में हंगामा होता है तो जान बची लाखों पाये… 5 दिन के सदन को 3 घंटे 48 मिनिट में समाप्त करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इतने सख्त अंदाज में पहली बार मैंने अपना यह संपादकीय मध्यप्रदेश के सभी 230 विधायकों के नाम पर लिखा है, यदि आपको ठेंस पहुंचे तो मुझे खेद व्यक्त करने में भी संकोच नहीं होगा, लेकिन सच से आप दूर नहीं भाग सकते। मेरी यह विशेष संपादकीय इस उ्मीद से सृजित है कि मध्यप्रदेश के गरीब छोटे-छोटे बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाये, पीडि़त गर्भवती महिलाओं का पोषण आहार ईमानदार नौकरशाही का दावा करने वाले अकर्मण्य कुछ डकैत किस्म के अधिकारियों के करतूतों पर आपकी वजह से पर्दा डल जाये, जनता को इस बात से मतलब नहीं है। लेकिन जनता तो आज भी यह चाहती है कि मध्यप्रदेश की विधानसभा में गौरवशाली परंपराओं को फिर से कायम किया जाये। सदन को हमेशा-हमेशा के लिए कुपोषित होने से बचाया जाये और राजनीति की नई पीढ़ी को यह समझाया जाये कि लहसुन प्याज की बोरियों की महक से लोकतंत्र का मंदिर नहीं चलेगा। इसलिए अंत में अपेक्षा करना गलत नहीं होगा कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ, नेताप्रतिपक्ष डॉ. गोविन्द सिंह, गृहमंत्री नरोāाम मिश्रा, विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम के सामने यह संकल्प ले लें, कि हम दो दिन का सदन फिर से बुलायेंगे और प्रत्येक विधायक को यह अवसर देंगे कि अपने विधानसभा का कम से कम एक मुद्दा अपने क्षेत्र की जनता के नाम सदन के भीतर उनकी तरफ से पूरी शिद्दत के साथ रखकर आप उनके साथ न्याय करें, जिन्होंने आपको चुना है। जय हिन्द-वंदेमातरम्!